Saturday, 4 March 2017

*संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के क्षत्रिय सामंत, भाग-१*







अवध क्षेत्र हिन्दुस्तान का हृदय है, सिर्फ भौलोगिक रूप से नही, सांस्कृतिक रूप से भी। अवध की उपजाऊ भूमि जिसे भारत के धान्यागार के रूप में जाना जाता है, युगों युगों से भारतीय सभ्यता की नाभिक रही है, ८०० BC पूर्व आर्यन्स के आने से अब तक।
प्रभु श्री रामचंद्र की इस भूमि ने महाद्वीप के सबसे प्रतापी वंशों को जन्म दिया। जनरल स्लीमैन लिखते हैं, "मालवा की आबो-हवा में अवध जैसी फसलें और पेड़ तो हो सकते हैं, पर वहाँ अवध जैसे सैनिक कभी नही हो सकते।"
अवध अपनी कला, स्वर संगीत, नृत्य, व्यंजन, वास्तु-कला, बोली, संस्कार के लिए विख्यात है। इसका श्रेय हज़ार वर्षों से चले आ रहे सामंतवाद को जाता है। अवध के ज़मींदार सभ्यता की संकल्पना को नयी ऊँचाइयों पर ले गए। उनके मूल्यों, उनके ढंग की तुलना यूरोपीय जागीरदारों और जापानी सामुराई से की जा सकती है।
इन ज़मींदारों ने न सिर्फ मध्यकालीन आक्रमण झेले बल्कि अठारवीं शताब्दी में अंग्रेज़ी हुकूमत से भी लोहा लिया। शताब्दियों तक अनवरत विदेशी ताकतों से डट कर लड़ते रहे, अपनी ज़मीन और परंपरा बनाये रखते हुए।
जब १८५७ में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इन्हें बर्बाद करना चाहा, इन ज़मींदारों ने अंग्रेज़ी हुकूमत को लगभग उखाड़ फेंका! उन अंग्रेजों को जिन्हें विश्व की महानतम सैन्य शक्ति कहा जाता था। ब्रिटिश शासन ने उनकी बहादुरी को सम्मान देते हुए उनसे समझौता किया।
सन् १९४७ में देश आज़ाद होने पर इन ज़मींदारों से इनके विशेषाधिकार, इनकी सुविधाएँ छीन ली गईं। सरकार ने इनकी ज़मीनें भी हड़प लीं जिन्हें इन ज़मींदारों के पूर्वजों ने अपने खून से सींचा था। आज़ाद हिंदुस्तान में विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी संस्कृति और अपनी परम्पराओं का पालन किया।
अगले भागों में हम चर्चा करेंगे अवध प्रान्त के क्षत्रिय जागीरदारों के इतिहास पर, उनकी परम्पराओं पर और भारतीय सभ्यता में उनके योगदान पर। जिलेवार सभी ज़मींदारियों पर हरसम्भव जानकारी उपलब्ध कराने का प्रयास रहेगा।
डॉ. नीतीश सिंह सूर्यवंशी

संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के राजपूत सामंत- भाग २, इटौंजा राज - अवध (लखनऊ)




संयुक्त प्रान्त के राजपूत सामंत- भाग २

इटौंजा राज - अवध

परमार जब तेरहवीं शताब्दी के मध्य में अपनी मूल गद्दी से विस्थापित होने लगे तब देवगढ़ से राव देव रिध राय के नेतृत्व में वे अवध की इटौंजा परगना आये, रिध राय राजा रूद्र शाह देवगढ़ के आठवें पुत्र थे।
उस समय वहाँ कुर्मी-मुराव आधिपत्य था, राव देव रिध राय ने उन्हें मार भगाया। इसमें उनकी मदद उनके भाई राम सिंह ने की, परिणाम स्वरूप राम सिंह को कुछ गाँव मिले, राम सिंह के वंशज थानपति पँवार नाम से जाने जाते हैं, इनकी सिंघामऊ और बनौंगा ज़मींदारी है।
परमारों के इटौंजा आने के पहले उनकी गढ़ी मलिहाबाद में थी, उसके अब अवशेष बचे हैं। अब वो टप्पा सोलंकियों का है।
देव रिध राय के तीन पुत्र थे, डींगर देव, सहलन देव, करण देव। डींगर देव को राजा की उपाधि मिली, सहलन देव को राय की और करण देव को चौधरी की। तीनों में बंटवारा हुआ। महोना परगना तीन भागों में विभाजित हुई।
चार टप्पे राजा डींगर देव को,  दो टप्पे राय सहलन देव को और दो टप्पे चौधरी करण देव को मिले। इटौंजा के वर्तमान राजा के सीधे पूर्वज राजा डींगर देव थे। डींगर देव के दो पुत्र हुए, चंद्रसेन और नन्दसेन। नन्दसेन के पौत्र अशोकमल को इटौंजा गद्दी मिली। अशोकमल के पाँच पुत्र हुए जिनमे सबसे बड़े पुत्र ताराचन्द को गद्दी मिली। दुसरे पुत्र मोखम सिंह को बनगाँव और बेलवा के गाँव मिले, तीसरे पुत्र रूपनारायण को दृगोई के गाँव, चौथे पुत्र गोरूप सिंह को बीकामऊ, पांचवें पुत्र ईश्वर सिंह को लौधोली ग्राम मिले।
तीन पीढ़ियों बाद राजा निरी हुए जोकि एक शानदार शिकारी थे, राजा निरी और उनके भाई बहादुर सिंह नवाब दिलेर खान से हुए युद्ध में मारे जाते हैं। इसमें रूपनारायण का हाथ था, उसने गुप्त रास्ते से नवाब और उसके आदमियों को गढ़ में घुसाया।
राज निरी के पुत्र मदारी सिंह के पास आया। राजा मदारी सिंह अत्यंत घमण्डी थे, हवेली और रेवां शाखा वाले जब त्यौहारों पर बधाईयाँ देने आते तो वे मिलने से ही इनकार कर देते। मदारी सिंह के बाद उनके पुत्र राजा उदित सिंह गद्दी पर बैठे, उनके तीन पुत्र थे, पृथ्वी सिंह, अनूप सिंह और सूबा सिंह। उदित सिंह के बाद पृथ्वी सिंह और उनके बाद पृथ्वी सिंह के पुत्र मान सिंह गद्दी पर बैठे। सूबा सिंह का पुत्र स्वयंवर सिंह मान सिंह की हत्या कर गद्दी पर बैठ जाते हैं। स्वयम्वर सिंह के तीन पुत्र थे, शिव सिंह, बलवन्त सिंह और राम सिंह जिनमे से शिव सिंह को गद्दी मिली। अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में इटौंजा राज बहुत शक्तिशाली था, दिल्ली सरकार भी इन्हें मान देती थी। शिव सिंह ने इटौंजा परगना में शिवसिंहपुर बसाया, इनके पौत्र धरम सिंह ने ब्राह्मणों के लिए धरमपुर ग्राम बसाया।
धरम सिंह के पुत्र राजा जोत सिंह के दो पुत्र थे, रतन सिंह और गुमान सिंह।
१८५७ की क्रांति में अंग्रेज़ी फ़ौज ने इटौंजा पर हमला किया, महोना शाखा के दृग्विजय सिंह ने भयंकर युद्ध लड़ा, महोना लगभग बर्बाद हो गया। उन्हें गिरफ़्तार करके अंडमान भेज दिया गया जहाँ उनकी मृत्यु हो गई। महोना का नाम महिगावां पद गया और वो मिला दृग्विजय के भाई पृथ्वीपाल को। अशोक मल के वंशज, बनगाँव शाखा के बस्ती सिंह ने भी अंग्रेजों से युद्ध लड़ा, उनके गाँव जला दिए गए, कई को फाँसी दे दी गयी, करीब २०० परमारों की जान गई। बस्ती सिंह के भाई बख्तावर सिंह जो कि उस समय अपनी ससुराल गए थे वो बच गए और उन्हें १८६२ में बनगाँव मिला। उधर राजा रतन सिंह को गद्दी मिली।
अवध गज़ेटियर के मुताबिक इटौंजा राज ५५ गाँवों में फैला था। इनके अलावा परमारों के पास कई और गाँव थे जो कि परिवार की अन्य शाखाओं के पास थे।
राजा रतन सिंह के दो पुत्र थे, जगमोहन सिंह और इंद्र विक्रम सिंह। जगमोहन की अल्पायु में मृत्यु हो गई, १८८१ में इंद्र विक्रम को गद्दी मिली, इन्होंने इटौंजा राजमहल का विस्तार किया। इंद्र विक्रम के दत्तक पुत्र लाल सुरेन्द्र विक्रम सिंह और अन्य परिवारीजनों में सम्पत्ति विवाद रहा, राजा सुरेन्द्र विक्रम की १९४९ में मृत्यु हो गई, इनके कोई पुत्र न था, इनकी धर्मपत्नी बृजेन्द्र कुँवर ने अपनी बहन के पुत्र भानु प्रताप को गोद लिया जो कि रतलाम नरेश योगेन्द्र सिंह के पुत्र थे। बृजेन्द्र कुँवर की ७८ में मृत्यु हो गई। राजा भानु प्रताप तब गद्दी पर बैठे, इनके दो पुत्र हैं, कुँवर राघवेंद्र और कुँवर दिग्विजय। कुँवर राघवेंद्र के पुत्र हैं भँवर करणी सिंह। वर्तमान निवास इटौंजा भवन, लखनऊ।
उधर मोखम सिंह के वंशज तारा चन्द के चार पुत्र हुए, वीरेंद्र, जीतेन्द्र, महेंद्र, शैलेंद्र व एक पुत्री नीलम।
वीरेंद्र सिंह के दो पुत्र हुए प्रदीप सिंह और अरविन्द विक्रम सिंह, दो पुत्रियाँ, दीप्ति और ऐश्वर्या,  वर्तमान निवास इटौंजा राजभवन।
चित्र में राघवेन्द्र सिंह जी अपनी धर्मपत्नी के साथ







Tuesday, 1 November 2016

राजपूती स्वाभिमान एवं शौर्य की एक संक्षिप्त गाथा


रूपनगर की राजकुमारी चारुमति और महाराणा राज सिंह

एक फ़ारसी माँ का जाया हुआ औरंगज़ेब, राजपूतों में अपनी साख न होने के कारण चिंतित रहता था। एक किस्सा तब का जब उसकी शक्ति चरम पर थी...
1611 में किशनगढ़ का राठौड़ राज पितृ-राज्य मारवाड़ से टूट गया। जोधपुर के राजा उदय सिंह के पुत्र किशन सिंह ने किशनगढ़ बसाया। किशनगढ़ के पंचम नरेश रूप सिंह राठौड़ ने उत्तर में राज्य विस्तार कर रूपनगर में भव्य राजधानी बनायी।
1658 में रूप सिंह समूगढ़ में औरंगज़ेब के विरुद्ध लड़ते हुए  वीरगति को प्राप्त हुए।
रूप सिंह की पुत्री, राजकुमारी चारुमति के सौंदर्य के विषय में औरंगज़ेब ने सुन रखा था, उसने उनसे विवाह की इच्छा व्यक्त की और बुलावा भेजा।
दो हज़ार घुड़सवार और शाही दस्ता राजकुमारी को लेने पहुँचा।
स्वाभिमानी क्षत्राणी चारुमति इस प्रस्ताव से अत्यंत क्रोधित हुईं और उन्होंने रजपूतों के मुखिया को पत्र लिखा।
पत्र में लिखा था- "अब क्या हंस और सारस का संगम होगा? एक शुद्ध रक्त राजपूतनी वानर मुख वाले एक हत्यारे से विवाह करेगी?"
चारुमति ने कहा अगर राणा उसे इस अपमान से नहीं बचाते हैं तो वह अपने प्राण दे देगी।
अपने शौर्य को ललकारे जाने पर सिसोदिया कुल के रक्त में उबाल आ गया! तेज़ हवाओं में जान की परवाह किये बग़ैर महाराणा राज सिंह ने रूपनगर की ओर कूच किया और हज़ारों मुग़लिया सैनिकों और शाही दस्ते की आँखों के सामने से राठौड़नी को ले गए। पूरे राजपूताने में हर्ष की लहर दौड़ गयी, दोनों का विवाह हुआ।
अगर समय रहते समस्त क्षत्रियों का स्वाभिमान जाग गया होता, तो शायद ही कभी मुग़लिया सल्तनत की नींव हिंदुस्तान में पड़ती।

Wednesday, 28 September 2016

असकोट राज, पिथौरागढ़, उत्तराखंड

                                                   
       

                                                             असकोट राज (ज़मींदारी)

                                            शासक वंश- सूर्यवंशी (कत्यूरी/पाल)

वर्तमान प्रमुख- राजवर भानुराज सिंह। इनकी सुपुत्री, राजकुमारी गायत्री का विवाह जोधपुर के राजकुमार शिवराज सिंह से हुआ।

उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में भारत-नेपाल सीमा पर एक नगर है असकोट, यह तेरहवीं शताब्दी में कत्यूरी शासकों की एक शाखा द्वारा बसाया गया।
इतिहासकारों में कत्यूरी शासकों को ले कर कई मतभेद हैं, इनके विषय में विशेष प्रामाणिक लेख उपलब्ध नही हैं।
ब्रिटिश सरकार ने अपने शासनकाल में ई.टी.एटकिंसन को उत्तरी प्रांतों की जिलेवार रिपोर्ट बनाने के लिए नियुक्त किया। एटकिंसन के अनुसार कत्यूरी साम्राज्य उत्तर में भागलपुर (बिहार) से ले कर पश्चिम में काबुल (अफ़ग़ानिस्तान) तक था। [बद्री दत्त पाण्डेय के अनुसार कत्यूरी मूल रूप से अयोध्या से थे एवं उनका राज्य नेपाल से अफ़ग़ानिस्तान तक था]
किंवदंतियों और एटकिंसन के अनुसार शालिवाहन देव अयोध्या से हिमालय जाकर बद्रीनाथ के निकट जोशीमठ में बसे। उन्हीं के वंशज वासुदेव ने कत्यूरी वंश की स्थापना की। एटकिंसन ने असकोट के तत्कालीन राजवर से प्राप्त जानकारी और ताम्रपत्र शिलालेखों के आधार पर असकोट राजपरिवार के विषय में हिमालयन गज़ेटियर में लिखा।
छठी और सातवीं शताब्दी में कत्यूरी वंश का साम्राज्य अपने चरम पर था। फिर आपसी सामंजस्य की कमी और पारिवारिक कलह के चलते उसके पतन का दौर आया।

सम्राट ब्रह्म देव के पौत्र अभय पाल देव परिवार से विमुख हो कर एक शांत दूरस्थ क्षेत्र की ओर चले आये जिसे आज असकोट कहते हैं। यह क्षेत्र घने जंगलों से घिरा था एवं आबादी नगण्य थी। परिवार की मुख्यधारा से अलग हो कर अभय पाल देव ने अपने नाम के आगे से देव हटा दिया। तब से आज तक उनके वंशज अपना उपनाम पाल लिखते हैं।
कुछ ही समय में पाल वंश ने स्वयं को पुनर्वासित कर राज्य में अस्सी कोट/किले स्थापित किये (जिनमें से कुछ वर्तमान में नेपाल में आते हैं) और राज्य को नाम दिया अस्सीकोट जिसे कालांतर में असकोट कहा जाने लगा।
बारहवीं शताब्दी के अंत में वन रावतों को हरा कर पाल वंश का विस्तार हुआ।
राजा ने लखनपुर नामक जगह को अपनी राजधानी बनाया। यहीं चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दी में पाल परिवार बसा। आज यह पूरी तरह उजड़ा हुआ है। एटकिंसन हिमालयन गज़ेटियर में लिखते हैं कि 1581 में असकोट पर अल्मोड़ा के राजा रूद्र चंद्र की संप्रभुता हो गयी। 1588 में राजवर राय पाल और उनके पूरे परिवार की निर्मम हत्या कर दी जाती है। परिवार का एकमात्र जीवित सदस्य था एक नवजात शिशु (महेंद्र पाल) जिसे दाई/आया ने बचा लिया था। बाद में महेंद्र पाल को लालन-पालन के लिए अल्मोड़ा नरेश रूद्र चन्द्र के पास भेज दिया जाता है। महेन्द्रपाल के बड़े होने पर अल्मोड़ा नरेश असकोट राज पुनः बहाल कर देते हैं।
महेन्द्रपाल वापस असकोट आते हैं पर उन्होंने राजधानी लखनपुर में बसने के बजाय देवाल में एक मज़बूत किला बनाया। पूरे पत्थर का यह किला हमले की स्थिति में पूरी तरह सुरक्षित था!
एटकिंसन गज़ेटियर में राजवर महेन्द्रपाल और उनके काका रूद्र पाल के बीच हुए संपत्ति विवाद का ज़िक्र करते हैं।
रूद्रपाल और उनके अनुज को उनके हिस्से का राज्य दे दिया गया। अस्सी गाँव महेन्द्रपाल और बाकी के चौबीस रूद्रपाल के पुत्रों में बंट गए।
बहादुर पाल की मृत्यु के बाद पुष्कर पाल असकोट के राजवर बने, पाल वंशियों ने सीमायें बढ़ाने, कब्ज़े करने के बजाय खुद के राज्य को सम्पन्न बनाने की दिशा में काम किया।
एटकिंसन गज़ेटियर में लिखते हैं कि कत्यूरी राजकुमारों को राज्यवर कहके सम्बोधित किया जाता था। 1204 में राजवर इंद्रदेव द्वारा दिये गए एक भूमि अनुदान पत्र से ऐसी जानकारी प्राप्त होती है।
पाल वंश की वंशावली में केवल ज्येष्ठ पुत्रों का उल्लेख है।
उत्तर प्रदेश ज़मींदारी अधिनियम और कुमाऊं ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियम के अंतर्गत असकोट ज़मींदारी का अंत हुआ।
भारत में ऐसे चंद ही क्षत्रिय राज वंश हैं जिनका इतने लंबे समय तक का शासकीय इतिहास है, इसीलिए असकोट के सूर्यवंशी शासकों को शताब्दियों तक सम्मान मिला।
असकोट राज पर भले ही कालांतर में अन्य शासकों की सम्प्रभुता रही (चन्द, गोरखा, अंग्रेज़) पर उन सभी ने पारंपरिक रूप से पाल सूर्यवंशी कुल के विशिष्ट ऐतिहासिक महत्त्व को मान्यता दी।
इनका महत्व इनकी शक्ति और इनके धन के चलते नहीं, अपितु इसलिए था क्योंकि वे शाही कत्यूरी वंशज थे। ये भोग विलासिता से दूर बहुत ही साधारण जीवन व्यतीत करते थे। अट्ठारहवीं शताब्दी में जब गोरखा आक्रमण हुआ तो वे कांगड़ा तक काबिज़ हो गए पर उन्होंने असकोट में कोई हस्तक्षेप नहीं किया।
नेपाली गोरखा और अंग्रेज़ों के मध्य हुए युद्ध में गोरखा हार गए। सिधौली संधि के तहत अस्कोट भी ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बन गया।
अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए भी कत्यूरी वंश की यह शाखा धर्म-परायण रही, अपनी संस्कृति को जीवंत रखा। बच्चों में संस्कार रहे। भोजन उच्च वर्ण का ब्राह्मण ही बनाता था।
एटकिंसन लिखते हैं कि राजवर पुष्कर पाल उत्तानपाद की दो सौ इक्कीसवीं पीढ़ी थे।
पाल एक उपनाम है, वे कत्यूरी शाखा के विशुद्ध सूर्यवंशी हैं। महादेव इनके आराध्य हैं।
उत्तर प्रदेश में बसे पाल और सूर्यवंशी उपनाम वाले क्षत्रिय इसी कत्यूरी वंश की शाखा हैं और कुमाऊँ-गढ़वाल से आ कर उ•प्र• में बसे।
बस्ती जिले के अमोढ़ा राज और महसों राज एवं बाराबंकी का हड़हा राज  इसी वंश के हैं।  पाल सूर्यवंशियों की प्रथम स्वतंत्र संग्राम में अति महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इनकी संख्या शेष वंशों की तुलना में बहुत कम है. उत्तर प्रदेश में इन्हें क्षत्रियों में सबसे उच्च वर्ण का माना जाता है !

अस्कोट राज
वंशावली-
सम्राट ब्रह्म देव
राजवर अभय पाल देव
राजवर निर्भय पाल
राजवर भरत पाल
राजवर भैरव पाल
राजवर भूपाल
राजवर रतनपाल
राजवर शंखपाल
राजवर श्यामपाल
राजवर साईंपाल
राजवर सुरजन पाल
राजवर भोजपाल
राजवर भरत पाल
राजवर स्तुतिपाल
राजवर अच्छवपाल
राजवर त्रिलोकपाल
राजवर सूर्यपाल
राजवर जगतपाल
राजवर प्रजापाल
राजवर रायपाल
राजवर महेन्द्रपाल
राजवर जैतपाल
राजवर बीरबल पाल
राजवर अमरपाल
राजवर अभयपाल
राजवर उच्छब पाल
राजवर विजयपाल
राजवर महेन्द्रपाल
राजवर बहादुरपाल
राजवर पुष्करपाल
राजवर गजेंद्रपाल
राजवर विक्रम बहादुरपाल
राजवर टिकेंद्र बहादुरपाल
राजवर भानुराज सिंह पाल

Friday, 16 September 2016

संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के राजपूत सामंत, भाग-३, भदैयां राज, सुल्तानपुर

                                                     

                                                 
                                                      भदैयां, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश।
                                                            गाँव- 41, राज्य- अवध

उत्तर प्रदेश का 'राजकुमार' वंश, राजकुँवर का अपभ्रंश है जो कि मूलतः चौहान वंश है।
भदैयां राज के चौहान, पृथ्वीराज चौहान तृतीय के सीधे वंशजों में से हैं।
भदैयां राज के वर्तमान प्रमुख- श्री इंद्रप्रताप सिंह राजकुँवर परिवार के पैंतीसवें मुखिया हैं। इनका विवाह फूलपुर, बस्ती की रानी सरिता देवी से हुआ।ये वर्तमान में लखनऊ में निवासरत हैं।

तराईं के युद्ध के बाद चौहान साम्राज्य टूट गया, पृथ्वीराज चौहान के पुत्र अग्निराज गोविन्दराज चौहान दिल्ली से दक्षिण की ओर बढ़े और रणथम्भौर पर आधिपत्य स्थापित किया।
गोविन्दराज के पौत्र अग्निराज प्रह्लाद चौहान ने खुद को रणथम्भौर का स्वायत्त शासक घोषित कर सल्तनत के खिलाफ विद्रोह किया पर  शिकार खेलते हुए गंभीर रूप से घायल होने में कारण प्रह्लाद की मृत्यु हो गयी।
प्रह्लाद के पुत्र वीरनारायण चौहान ने विद्रोह जारी रखा, दिल्ली के सुल्तान इलतुत्मिश ने इनके समक्ष संधि का प्रस्ताव रखा और दिल्ली बुला कर इन्हें धोखे से ज़हर दे कर इनकी हत्या कर दी।
वीरनारायण चौहान की मृत्यु के पश्चात् राज्य के उत्तराधिकारी उनके काका वागभट्ट बने।
वागभट्ट चौहान ने सुल्तान बलबन को 2 बार हराया।
इनके पौत्र हम्मीर देव चौहान ने दिग्विजय की शुरुआत की। अपने राज्य का विस्तार किया, इन्होंने कोटि-यज्ञ भी किया और ख़िलजी को हराया।
आगे रणथम्भौर पर सुल्तान का कब्ज़ा होने पर हम्मीरदेव के पुत्र अग्निराज रामदेव चौहान निर्वासित हो कर रणथम्भौर से अवध की ओर रवाना हो गए।
रामदेव के पुत्र ताकशाह सिंह चौहान को राजकुँवर की उपाधि मिली और ये सुल्तानपुर में गोमती किनारे आ कर बस गए।
यहाँ इन्होंने काफ़ी भूमि खरीदी और राजस्व जमाकर और ज़मीनें लेते गए, कुछ ही वर्षों में उनके राज का विस्तार हो गया।
तकशाह के पौत्र ईशरी सिंह राजकुँवर ने एक छोटी सेना तैयार की और आस पास के क्षेत्र पर भी आधिपत्य जमा लिया।
पंद्रहवीं शताब्दी के अंत और सोलहवीं की शुरुआत में बरियाड़शाह राजकुँवर के नेतृत्व में चौहानों की शक्ति चरम पर थी।
18वीं शताब्दी में अंग्रेजों से विद्रोह के कारण भदैयां राज का पतन हुआ...युवराज जोखा राजकुँवर से सभी उपाधियाँ छीन ली गयीं, महल, किले ज़ब्त हो गए।
वंशावली:
अग्निराज अन्हिल- इन्हें चौवहनी की उपाधि मिली जिसे कालान्तर में चौवहन, चहमान फिर चौहान कहा जाने लगा।
वासुदेव चौहान
सामंतराज चौहान
नरदेव चौहान
अजयराज चौहान
विग्रहराज चौहान
चंद्र राज चौहान
गोपेन्द्र राज चौहान
दुर्लभ राज चौहान
गुवक चौहान
चन्दन राज चौहान
वाक्पति राज चौहान
विरायरम चौहान
चामुण्डा राज चौहान
दुर्लभ राज तृतीय
विग्रह राज तृतीय
पृथ्वीराज चौहान
अजयराज चौहान द्वितीय
अर्णव राज चौहान
विग्रह राज चतुर्थ
अमरंगे चौहान
पृथ्वीराज द्वित्तीय
सोमेश्वर चौहान
पृथ्वीराज तृतीय (कुल के महानतम शासक)
गोविन्दराज चौहान
बलहन् चौहान
प्रह्लाद चौहान
वीर नारायण चौहान
वागभट्ट चौहान
जैत्र सिंह चौहान
हम्मीरदेव चौहान
रामदेव चौहान

तकशाह सिंह राजकुँवर
राजशाह सिंह राजकुँवर
ईशरी सिंह राजकुँवर
देवराज सिंह राजकुँवर
चामुण्डाराज राजकुँवर
माधो सिंह राजकुँवर
जय सिंह राजकुँवर
उदय प्रताप सिंह राजकुँवर
पूजनदेव राजकुँवर
बृज सिंह राजकुँवर
जयपाल सिंह राजकुँवर
विग्रहराज सिंह राजकुँवर
विजय चंद्र सिंह राजकुँवर
जैत्र सिंह राजकुँवर
प्रताप सिंह राजकुँवर
गंगा सिंह राजकुँवर
आनंदपाल सिंह राजकुँवर
कुम्भकर्ण सिंह राजकुँवर
मेघराज सिंह राजकुँवर
रूद्र सिंह राजकुँवर
विजयराज सिंह राजकुँवर
केशवदेव सिंह राजकुँवर
बरियाड़ शाह राजकुँवर
संग्राम राज सिंह राजकुँवर
रुस्तम शाह राजकुँवर
तेज सिंह राजकुँवर
पृथ्वीराज सिंह राजकुँवर
रूद्र प्रताप सिंह राजकुँवर
वीरभद्र सिंह राजकुँवर
सूर्य नारायण सिंह राजकुँवर
बरियाड़ सिंह राजकुँवर
जोखा सिंह राजकुँवर
हरिकिशन सिंह राजकुँवर
चंद्रभूषण सिंह राजकुँवर
इंद्रप्रताप सिंह राजकुँवर (वर्तमान प्रमुख)

Thursday, 1 September 2016

राष्ट्र गौरव अमर शहीद लेफ्टिनेंट त्रिवेणी सिंह





अमर शहीद लेफ्टिनेंट ठा• त्रिवेणी सिंह

देश की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का बलिदान देने वाले लेफ्टिनेंट त्रिवेणी सिंह का नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।
2 जनवरी 2004 को जम्मू रेलवे स्टेशन पर लश्कर-ए-तैयबा द्वारा किये गए आतंकी हमले में त्रिवेणी सिंह ने अदम्य साहस और अद्भुत वीरता का परिचय देते हुए आतंकियों को मार गिराया और सैकड़ों यात्रियों के प्राण बचाये, हमले में गंभीर रूप से घायल त्रिवेणी वीरगति को प्राप्त हुए।


देह त्यागने के पूर्व सिंह ने अपने कमान अधिकारी को सलूट करते हुए कहा "मिशन पूरा हुआ सर"
विशिष्ट बहादुरी के लिए सिंह को को भारत के सर्वोच्च (असैनिक काल) वीरता पुरस्कार अशोक चक्र से सम्मानित किया गया। राष्ट्रपति द्वारा यह सम्मान त्रिवेणी के पिता कैप्टेन जन्मेज सिंह को दिया गया।
त्रिवेणी के कमान अधिकारी मेजर जनरल राजेंद्र सिंह ने एक साक्षात्कार के दौरान कहा "मुझे गर्व है त्रिवेणी सिंह पर, जिन्होंने अपने शरीर पर कई गोलियों और ग्रेनेड का हमला झेल कर भी आत्मघाती हमलावरों को मार गिराया, यह आज तक की सबसे कम समय में पूरी की गयी सैन्य कार्यवाही है।"
त्रिवेणी चाहते तो और बल का इंतज़ार करते, मुठभेड़ घण्टों/दिनों तक चलती और कई जानें जातीं...पर वो अपने प्राणों की परवाह किये बगैर अकेले दुश्मनो पर टूट पड़े।


त्रिवेणी सिंह ठाकुर का जन्म 1 फ़रवरी 1978 को बिहार के नामकुन में हुआ (वर्तमान में झारखण्ड), वे पंजाब में पले-बढे।
सिंह ने कराटे, तैराकी, एथलेटिक्स में राष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण पदक जीते थे।
नवल अकादमी में चयन होने के बावजूद घर वालों की इच्छा के चलते उन्होंने पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में बी.एससी एग्रीकल्चर में दाखिला लिया। त्रिवेणी के पिता चाहते थे की वे कृषि में स्नातक कर के उनके व्यवसाय को आगे बढ़ाएं। सिंह परिवार का पंजाब में 40 एकड़ का फार्म है, त्रिवेणी के पिता श्री जन्मेज सिंह रिटायर्ड फौजी हैं, वे कप्तान के पद से सेवानिवृत्त हुए।


पर त्रिवेणी में राष्ट्र प्रेम का जज़्बा कूट कूट कर भरा था, उनकी तीव्र इच्छा थी सेना में सेवाएं देने की। उन्होंने स्नातक के बाद CDS और SSB की परीक्षा उत्तीर्ण की, IMA (भारतीय सैन्य अकादमी) में उनका चयन हुआ..


IMA में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए सिंह को सम्मानित किया गया, आवेदन फार्म पर त्रिवेणी ने गर्व से "इन्फेंट्री" भरा। (इन्फेंट्री- की पैदल सेना जो सबसे आगे रहकर दुश्मन का सामना करती है)
दिसंबर 2001 में देश के सर्वश्रेष्ठ सैन्य दस्तों में से एक 5 जम्मू एंड कश्मीर लाइट इन्फेंट्री (5 JK-LI) में कमीशंड अधिकारी के रूप में त्रिवेणी की पदस्थापना हुई। श्रेष्ठ प्रदर्शन के चलते उन्हें कमांडो अभ्यास के लिए कॉलेज ऑफ़ कॉम्बैट भी भेजा गया।


31 दिसंबर 2003 को पठानकोट आर्मी क्लब में त्रिवेणी ने अपनी मंगेतर (10 मार्च को त्रिवेणी का विवाह होना था), परिवार और मित्रों के साथ नए साल का जश्न मनाया और अगले ही दिन 1 जनवरी 2004 को त्रिवेणी त्वरित प्रतिक्रिया दल के हिस्से के रूप में अपने सैन्य दस्ते में शामिल हुए।
उसके अगले दिन, 2 जनवरी को त्रिवेणी को जम्मू स्टेशन पर आतंकी हमले की सूचना मिली, त्रिवेणी को कमान अधिकारी निर्देशित किया गया की वे दस्ते को आगाह करें और QRT मौके पर भेजें, उन्हें इस ऑपरेशन की ज़िम्मेदारी नही दी गयी थी,पर रजपूती खून कैसे पीछे हटता... त्रिवेणी ने सोचा कार्यवाही में देर होगी,जिस से और जानें जा सकती हैं...उन्होंने कमान अधिकारी से इस मिशन का नेतृत्व करने की इजाज़त मांगी, अप्रूवल मिलते ही वो अपने 5 कमांडो की टीम ले कर स्टेशन की ओर कूच कर गए, त्रिवेणी दुश्मनो का खात्मा करने के लिए इस कदर बेताब थे कि उन्होंने जल्दी पहुँचने के लिए अपने जीप चालक से कहा "गाड़ी पटरियों के पार चढ़ा दो" और कई पटरियां पार करते हुए वे मौके पर पहुँचे।
तब तक आतंकी 7 जाने ले चुके थे, मरने वालों मे 2 पुलिस वाले, 2 बीएसएफ जवान, 1 रेलवे पुलिस जवान और 2 आम नागरिक थे।

अपने कमांडो को पोजीशन लेने का निर्देश दे कर त्रिवेणी आगे बढ़े और भारी गोलीबारी के बीच घायल हो कर भी दो आतंकियों को मार गिराया, एक आतंकी रेल पुल के नीचे छिपा हुआ था जिसके निशाने पर 300 से ज़्यादा यात्री थे और वो उन सभी यात्रियों को पल भर में उड़ा सकता था, सिंह ने और बल का इंतज़ार नही किया, क्षात्र धर्म का पालन करते हुए सिंह आतंकी की ओर लपके, उसने सिंह पर कई गोलियाँ दागीं, ग्रेनेड से हमला किया, फिर भी सिंह अंततः उस तक पहुँच गए, सिर में गोली लगने के बावजूद त्रिवेणी सिंह ने उस आतंकी से निहत्थे द्वन्द किया और उसके प्राण ले लिये, गंभीर रूप से घायल त्रिवेणी वीरगति को प्राप्त हुए।

सिंह पूर्व में भी कई सैन्य ऑपरेशन का हिस्सा रहे, एक बार तो सिंह ने 2 भागते आतंकियों का खुले मैदान में पीछा कर उन्हें माँर गिराया था। त्रिवेणी जैसे धर्म-परायण, कर्तव्यनिष्ठ युवा, समाज के लिए प्रेरणा हैं।

धन्य है वो माँ जिसने ऐसे वीर सपूत को जन्म दिया।
अमर शहीद लेफ्टिनेंट त्रिवेणी सिंह ठाकुर को शत शत नमन, आप सदा याद किये जायेंगे।




डॉ• नीतीश सिंह सूर्यवंशी

Saturday, 27 August 2016

अमर क्रांतिवीर ठा• रामप्रसाद तोमर (बिस्मिल)

जाने कितने झूले थे फाँसी पर, कितनो ने गोली खाई थी....क्यो झूठ बोलते हो साहब, कि चरखे से आजादी आई थी....
काकोरी और मैनपुरी काण्ड के सूत्रधार, स्वाधीनता संग्राम के नायक अमर शहीद ठाकुर रामप्रसाद तोमर (बिस्मिल) थे।
मध्य प्रदेश के एक तंवर राजपूत जमींदार परिवार से ताल्लुक़ रखने वाले रामप्रसाद में देश प्रेम का जज़्बा बचपन से था।
चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह भी तोमर को अपना गुरु मानते थे।इनकी कविता "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है" ने ना जाने कितने जोशीले नौजवानों में देश प्रेम की अलख जलायी।
ठाकुर रामप्रसाद तोमर, ठाकुर रोशन सिंह, अशफाक और राजेंद्र लाहिरी को काकोरी कांड के लिए फांसी की सज़ा सुनाई गयी।अंत समय में भी यही कविता ज़बान पर थी "सरफ़रोशी की तमन्ना...."
मगर अफ़सोस है कि रामप्रसाद, राजगुरु, भगत, रोशन, लाहिरी जैसे सैकड़ों वीरों के बलिदान को भुलाकर, अंग्रेजों के एजेंट को महात्मा बना दिया गया और देश 60 सालों के लिए ऐसे पापियों के पास चला गया ।
भारत माँ के इस वीर सपूत को शत शत नमन।

गोरखपुर जेल में लिखी तोमर की आत्मकथा का एक अंश निम्नलिखित है-
तोमरधार में चम्बल नदी के किनारे पर दो ग्राम आबाद हैं, जो ग्वालियर राज्य में बहुत ही प्रसिद्ध हैं, क्योंकि इन ग्रामों के निवासी बड़े उद्दण्ड हैं । वे राज्य की सत्ता की कोई चिन्ता नहीं करते । जमीदारों का यह हाल है कि जिस साल उनके मन में आता है राज्य को भूमि-कर देते हैंऔर जिस साल उनकी इच्छा नहीं होती, मालगुजारी देने से साफ इन्कार कर जाते हैं । यदि तहसीलदार या कोई और राज्य का अधिकारी आता है तो ये जमींदार बीहड़ में चले जाते हैं और महीनों बीहड़ों में ही पड़े रहते हैं । उनके पशु भी वहीं रहते हैं और भोजनादि भी बीहड़ों में ही होता है । घर पर कोई ऐसा मूल्यवान पदार्थ नहीं छोड़ते जिसे नीलाम करके मालगुजारी वसूल की जा सके । एक जमींदार के सम्बंधमें कथा प्रचलित है कि मालगुजारी न देने के कारण ही उनको कुछ भूमि माफी मेंमिल गई । पहले तो कई साल तक भागे रहे । एक बार धोखे से पकड़ लिये गए तो तहसील के अधिकारियों ने उन्हें बहुत सताया । कई दिन तक बिना खाना-पानी के बँधा रहने दिया । अन्त में जलाने की धमकी दे, पैरों पर सूखी घास डालकर आग लगवा दी । किन्तु उन जमींदार महोदय ने भूमि-कर देना स्वीकार न किया और यही उत्तर दिया कि ग्वालियर महाराज के कोष में मेरे कर न देने से ही घाटा न पड़ जायेगा । संसार क्या जानेगा कि अमुक व्यक्ति उद्दंडता के कारण ही अपना समय व्यतीत करता है । राज्य को लिखा गया, जिसका परिणाम यह हुआकि उतनी भूमि उन महाशय को माफी में दे दी गई । इसी प्रकार एक समय इन ग्रामों के निवासियों को एक अद्भुत खेल सूझा । उन्होंने महाराज के रिसाले के साठ ऊँट चुराकर बीहड़ों में छिपा दिए । राज्य को लिखा गया; जिस पर राज्य की ओर से आज्ञा हुई कि दोनों ग्राम तोप लगाकर उड़वा दिए जाएँ । न जाने किस प्रकार समझाने-बुझाने से वे ऊँट वापस किए गए और अधिकारियों को समझाया गया कि इतनेबड़े राज्य में थोड़े से वीर लोगों का निवास है, इनका विध्वंस नकरना ही उचित होगा । तब तोपें लौटाईं गईं और ग्राम उड़ाये जाने से बचे । ये लोग अब राज्य-निवासियोंको तो अधिक नहीं सताते, किन्तु बहुधा अंग्रेजी राज्य में आकर उपद्रव कर जाते हैं और अमीरों के मकानों पर छापा मारकर रात-ही-रात बीहड़ में दाखिल हो जाते हैं ।बीहड़ में पहुँच जाने पर पुलिस या फौज कोई भी उनका बाल बाँका नहीं कर सकती । ये दोनों ग्राम अंग्रेजी राज्य की सीमा से लगभग पन्द्रह मील की दूरी पर चम्बल नदी के तट पर हैं । यहीं के एक प्रसिद्ध वंश में मेंरे पितामह श्री नारायणलाल जी का जन्म हुआ था । वह कौटुम्बिक कलह औरअपनी भाभी के असहनीय दुर्व्यवहार के कारण मजबूर हो अपनी जन्मभूमि छोड़ इधर-उधर भटकते रहे । अन्त मेंअपनी धर्मपत्नी और दो पुत्रों के साथ वह शाहजहाँपुर पहुँचे । उनके इन्हीं दो पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र श्री मुरलीधर जी मेरे पिता हैं । उस समय इनकी अवस्था आठ वर्ष और उनके छोटे पुत्र - मेरे चाचा (श्री कल्याणमल) की उम्र छः वर्ष की थी.