Tuesday 1 November 2016

राजपूती स्वाभिमान एवं शौर्य की एक संक्षिप्त गाथा


रूपनगर की राजकुमारी चारुमति और महाराणा राज सिंह

एक फ़ारसी माँ का जाया हुआ औरंगज़ेब, राजपूतों में अपनी साख न होने के कारण चिंतित रहता था। एक किस्सा तब का जब उसकी शक्ति चरम पर थी...
1611 में किशनगढ़ का राठौड़ राज पितृ-राज्य मारवाड़ से टूट गया। जोधपुर के राजा उदय सिंह के पुत्र किशन सिंह ने किशनगढ़ बसाया। किशनगढ़ के पंचम नरेश रूप सिंह राठौड़ ने उत्तर में राज्य विस्तार कर रूपनगर में भव्य राजधानी बनायी।
1658 में रूप सिंह समूगढ़ में औरंगज़ेब के विरुद्ध लड़ते हुए  वीरगति को प्राप्त हुए।
रूप सिंह की पुत्री, राजकुमारी चारुमति के सौंदर्य के विषय में औरंगज़ेब ने सुन रखा था, उसने उनसे विवाह की इच्छा व्यक्त की और बुलावा भेजा।
दो हज़ार घुड़सवार और शाही दस्ता राजकुमारी को लेने पहुँचा।
स्वाभिमानी क्षत्राणी चारुमति इस प्रस्ताव से अत्यंत क्रोधित हुईं और उन्होंने रजपूतों के मुखिया को पत्र लिखा।
पत्र में लिखा था- "अब क्या हंस और सारस का संगम होगा? एक शुद्ध रक्त राजपूतनी वानर मुख वाले एक हत्यारे से विवाह करेगी?"
चारुमति ने कहा अगर राणा उसे इस अपमान से नहीं बचाते हैं तो वह अपने प्राण दे देगी।
अपने शौर्य को ललकारे जाने पर सिसोदिया कुल के रक्त में उबाल आ गया! तेज़ हवाओं में जान की परवाह किये बग़ैर महाराणा राज सिंह ने रूपनगर की ओर कूच किया और हज़ारों मुग़लिया सैनिकों और शाही दस्ते की आँखों के सामने से राठौड़नी को ले गए। पूरे राजपूताने में हर्ष की लहर दौड़ गयी, दोनों का विवाह हुआ।
अगर समय रहते समस्त क्षत्रियों का स्वाभिमान जाग गया होता, तो शायद ही कभी मुग़लिया सल्तनत की नींव हिंदुस्तान में पड़ती।

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