Saturday, 4 March 2017

*संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के क्षत्रिय सामंत, भाग-१*







अवध क्षेत्र हिन्दुस्तान का हृदय है, सिर्फ भौलोगिक रूप से नही, सांस्कृतिक रूप से भी। अवध की उपजाऊ भूमि जिसे भारत के धान्यागार के रूप में जाना जाता है, युगों युगों से भारतीय सभ्यता की नाभिक रही है, ८०० BC पूर्व आर्यन्स के आने से अब तक।
प्रभु श्री रामचंद्र की इस भूमि ने महाद्वीप के सबसे प्रतापी वंशों को जन्म दिया। जनरल स्लीमैन लिखते हैं, "मालवा की आबो-हवा में अवध जैसी फसलें और पेड़ तो हो सकते हैं, पर वहाँ अवध जैसे सैनिक कभी नही हो सकते।"
अवध अपनी कला, स्वर संगीत, नृत्य, व्यंजन, वास्तु-कला, बोली, संस्कार के लिए विख्यात है। इसका श्रेय हज़ार वर्षों से चले आ रहे सामंतवाद को जाता है। अवध के ज़मींदार सभ्यता की संकल्पना को नयी ऊँचाइयों पर ले गए। उनके मूल्यों, उनके ढंग की तुलना यूरोपीय जागीरदारों और जापानी सामुराई से की जा सकती है।
इन ज़मींदारों ने न सिर्फ मध्यकालीन आक्रमण झेले बल्कि अठारवीं शताब्दी में अंग्रेज़ी हुकूमत से भी लोहा लिया। शताब्दियों तक अनवरत विदेशी ताकतों से डट कर लड़ते रहे, अपनी ज़मीन और परंपरा बनाये रखते हुए।
जब १८५७ में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इन्हें बर्बाद करना चाहा, इन ज़मींदारों ने अंग्रेज़ी हुकूमत को लगभग उखाड़ फेंका! उन अंग्रेजों को जिन्हें विश्व की महानतम सैन्य शक्ति कहा जाता था। ब्रिटिश शासन ने उनकी बहादुरी को सम्मान देते हुए उनसे समझौता किया।
सन् १९४७ में देश आज़ाद होने पर इन ज़मींदारों से इनके विशेषाधिकार, इनकी सुविधाएँ छीन ली गईं। सरकार ने इनकी ज़मीनें भी हड़प लीं जिन्हें इन ज़मींदारों के पूर्वजों ने अपने खून से सींचा था। आज़ाद हिंदुस्तान में विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी संस्कृति और अपनी परम्पराओं का पालन किया।
अगले भागों में हम चर्चा करेंगे अवध प्रान्त के क्षत्रिय जागीरदारों के इतिहास पर, उनकी परम्पराओं पर और भारतीय सभ्यता में उनके योगदान पर। जिलेवार सभी ज़मींदारियों पर हरसम्भव जानकारी उपलब्ध कराने का प्रयास रहेगा।
डॉ. नीतीश सिंह सूर्यवंशी

संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के राजपूत सामंत- भाग २, इटौंजा राज - अवध (लखनऊ)




संयुक्त प्रान्त के राजपूत सामंत- भाग २

इटौंजा राज - अवध

परमार जब तेरहवीं शताब्दी के मध्य में अपनी मूल गद्दी से विस्थापित होने लगे तब देवगढ़ से राव देव रिध राय के नेतृत्व में वे अवध की इटौंजा परगना आये, रिध राय राजा रूद्र शाह देवगढ़ के आठवें पुत्र थे।
उस समय वहाँ कुर्मी-मुराव आधिपत्य था, राव देव रिध राय ने उन्हें मार भगाया। इसमें उनकी मदद उनके भाई राम सिंह ने की, परिणाम स्वरूप राम सिंह को कुछ गाँव मिले, राम सिंह के वंशज थानपति पँवार नाम से जाने जाते हैं, इनकी सिंघामऊ और बनौंगा ज़मींदारी है।
परमारों के इटौंजा आने के पहले उनकी गढ़ी मलिहाबाद में थी, उसके अब अवशेष बचे हैं। अब वो टप्पा सोलंकियों का है।
देव रिध राय के तीन पुत्र थे, डींगर देव, सहलन देव, करण देव। डींगर देव को राजा की उपाधि मिली, सहलन देव को राय की और करण देव को चौधरी की। तीनों में बंटवारा हुआ। महोना परगना तीन भागों में विभाजित हुई।
चार टप्पे राजा डींगर देव को,  दो टप्पे राय सहलन देव को और दो टप्पे चौधरी करण देव को मिले। इटौंजा के वर्तमान राजा के सीधे पूर्वज राजा डींगर देव थे। डींगर देव के दो पुत्र हुए, चंद्रसेन और नन्दसेन। नन्दसेन के पौत्र अशोकमल को इटौंजा गद्दी मिली। अशोकमल के पाँच पुत्र हुए जिनमे सबसे बड़े पुत्र ताराचन्द को गद्दी मिली। दुसरे पुत्र मोखम सिंह को बनगाँव और बेलवा के गाँव मिले, तीसरे पुत्र रूपनारायण को दृगोई के गाँव, चौथे पुत्र गोरूप सिंह को बीकामऊ, पांचवें पुत्र ईश्वर सिंह को लौधोली ग्राम मिले।
तीन पीढ़ियों बाद राजा निरी हुए जोकि एक शानदार शिकारी थे, राजा निरी और उनके भाई बहादुर सिंह नवाब दिलेर खान से हुए युद्ध में मारे जाते हैं। इसमें रूपनारायण का हाथ था, उसने गुप्त रास्ते से नवाब और उसके आदमियों को गढ़ में घुसाया।
राज निरी के पुत्र मदारी सिंह के पास आया। राजा मदारी सिंह अत्यंत घमण्डी थे, हवेली और रेवां शाखा वाले जब त्यौहारों पर बधाईयाँ देने आते तो वे मिलने से ही इनकार कर देते। मदारी सिंह के बाद उनके पुत्र राजा उदित सिंह गद्दी पर बैठे, उनके तीन पुत्र थे, पृथ्वी सिंह, अनूप सिंह और सूबा सिंह। उदित सिंह के बाद पृथ्वी सिंह और उनके बाद पृथ्वी सिंह के पुत्र मान सिंह गद्दी पर बैठे। सूबा सिंह का पुत्र स्वयंवर सिंह मान सिंह की हत्या कर गद्दी पर बैठ जाते हैं। स्वयम्वर सिंह के तीन पुत्र थे, शिव सिंह, बलवन्त सिंह और राम सिंह जिनमे से शिव सिंह को गद्दी मिली। अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में इटौंजा राज बहुत शक्तिशाली था, दिल्ली सरकार भी इन्हें मान देती थी। शिव सिंह ने इटौंजा परगना में शिवसिंहपुर बसाया, इनके पौत्र धरम सिंह ने ब्राह्मणों के लिए धरमपुर ग्राम बसाया।
धरम सिंह के पुत्र राजा जोत सिंह के दो पुत्र थे, रतन सिंह और गुमान सिंह।
१८५७ की क्रांति में अंग्रेज़ी फ़ौज ने इटौंजा पर हमला किया, महोना शाखा के दृग्विजय सिंह ने भयंकर युद्ध लड़ा, महोना लगभग बर्बाद हो गया। उन्हें गिरफ़्तार करके अंडमान भेज दिया गया जहाँ उनकी मृत्यु हो गई। महोना का नाम महिगावां पद गया और वो मिला दृग्विजय के भाई पृथ्वीपाल को। अशोक मल के वंशज, बनगाँव शाखा के बस्ती सिंह ने भी अंग्रेजों से युद्ध लड़ा, उनके गाँव जला दिए गए, कई को फाँसी दे दी गयी, करीब २०० परमारों की जान गई। बस्ती सिंह के भाई बख्तावर सिंह जो कि उस समय अपनी ससुराल गए थे वो बच गए और उन्हें १८६२ में बनगाँव मिला। उधर राजा रतन सिंह को गद्दी मिली।
अवध गज़ेटियर के मुताबिक इटौंजा राज ५५ गाँवों में फैला था। इनके अलावा परमारों के पास कई और गाँव थे जो कि परिवार की अन्य शाखाओं के पास थे।
राजा रतन सिंह के दो पुत्र थे, जगमोहन सिंह और इंद्र विक्रम सिंह। जगमोहन की अल्पायु में मृत्यु हो गई, १८८१ में इंद्र विक्रम को गद्दी मिली, इन्होंने इटौंजा राजमहल का विस्तार किया। इंद्र विक्रम के दत्तक पुत्र लाल सुरेन्द्र विक्रम सिंह और अन्य परिवारीजनों में सम्पत्ति विवाद रहा, राजा सुरेन्द्र विक्रम की १९४९ में मृत्यु हो गई, इनके कोई पुत्र न था, इनकी धर्मपत्नी बृजेन्द्र कुँवर ने अपनी बहन के पुत्र भानु प्रताप को गोद लिया जो कि रतलाम नरेश योगेन्द्र सिंह के पुत्र थे। बृजेन्द्र कुँवर की ७८ में मृत्यु हो गई। राजा भानु प्रताप तब गद्दी पर बैठे, इनके दो पुत्र हैं, कुँवर राघवेंद्र और कुँवर दिग्विजय। कुँवर राघवेंद्र के पुत्र हैं भँवर करणी सिंह। वर्तमान निवास इटौंजा भवन, लखनऊ।
उधर मोखम सिंह के वंशज तारा चन्द के चार पुत्र हुए, वीरेंद्र, जीतेन्द्र, महेंद्र, शैलेंद्र व एक पुत्री नीलम।
वीरेंद्र सिंह के दो पुत्र हुए प्रदीप सिंह और अरविन्द विक्रम सिंह, दो पुत्रियाँ, दीप्ति और ऐश्वर्या,  वर्तमान निवास इटौंजा राजभवन।
चित्र में राघवेन्द्र सिंह जी अपनी धर्मपत्नी के साथ